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आलोचना

हिंदी कविता का समकालीन परिदृश्य और जितेंद्र श्रीवास्तव का कवि-कर्म

अरुण होता


''वे रचती हैं!
वे रचती हैं तभी हम-आप होते हैं
तभी दुनिया होती है
रचने का साहस पुरुष में नहीं होता
वे होती हैं तभी पुरुष
पुरुष होते हैं।''
(अनभै कथा, पृ. 35)

''मन में गहरी बेचैनी है
इधर बदल गए हैं हमारे शहर
वहाँ अदृश्य हो रहे हैं आत्मा के वृक्ष
अब कोई आँधी नहीं आती
जो उड़ा दे भ्रम की चादर।''
(असुंदर सुंदर, पृ. 18-19)

''आदमी को नकारकर
औरतों को लुटवाकर
गोलियाँ बरसा कर
नहीं बचाया जा सकता देश
देश को बचाने के लिए प्यार चाहिए''
(इन दिनों हालचाल, पृ. 59)

''तुम्हारा कहीं भी होना
मेरे साथ होना है
मेरा कहीं भी होना
तुम्हारे साथ होना है।
तुम कहीं भी जाओ
कितनी भी बचकर जाओ
चुटकी भर चला ही जाऊँगा तुम्हारे साथ।''
(बिल्कुल तुम्हारी तरह, पृ. 14)

''मित्रों, संसार में विज्ञान ही विज्ञान है पर जीवन का विज्ञान विज्ञान की प्रचलित और प्रचारित अवधारणाओं के पार जाता है जहाँ अनुभव धूप में अपनी देह सुखाता है।'' (कायांतरण, पृ. 119)

(एक)

समकालीन कविता की युवा पीढ़ी का अति परिचित और चर्चित नाम है जितेंद्र श्रीवास्तव। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में जितेंद्र की कविताएँ प्रकाशित होती आ रही हैं। सिर्फ प्रकाशित होकर अलक्षित नहीं रह जाती हैं बल्कि पढ़ी जाती हैं, चर्चित होती है और प्रशंसित भी। जितेंद्र की पहली कविता पुस्तिका 'इन दिनों हालचाल' 1999 में प्रकाशित हुई थी। दिनेश श्रीनेत ने अपने चयन और संपादन से 'इन दिनों हालचाल' को 2011 में पुस्तकाकार रूप प्रदान किया है। दो दशकों से भी अधिक अवधि से जितेंद्र काव्य-सृजनरत हैं। अब तक उनके पाँच कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - अनभै कथा (2003), असुंदर सुंदर (2008), इन दिनों हालचाल (2011), बिल्कुल तुम्हारी तरह (2011) और कायांतरण (2012)। इन पाँचों संग्रहों की कविताओं ने हिंदी के पाठकों, विद्वानों, आलोचकों और सहृदयों का ध्यानाकर्षण किया है। हिंदी अकादमी दिल्ली का 'कृति सम्मान', उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 'रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार', 'भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार', उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 'विजयदेव नारायण साही पुरस्कार', भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का 'युवा पुरस्कार', 'डॉ. राम विलास शर्मा आलोचना सम्मान', 'परंपरा ऋतुराज सम्मान', 'देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार' आदि से सम्मानित कवि जितेंद्र एक आलोचक भी हैं। आलोचना के क्षेत्र में भी पुरस्कृत हो चुके हैं जो उपर्युक्त सूची से प्रमाणित होता है। परंतु यहाँ केवल जितेंद्र श्रीवास्तव के कवि-कर्म के कुछ बिंदुओं पर चर्चा की जा रही है। लेकिन, यह बताना जरूरी है कि जितेंद्र ने गाँव, शहर, कस्बा, महानगर में रहकर वहाँ के जन-जीवन से जुड़कर जो अनुभव प्राप्त किया है उसे अपने अंदर पकने दिया, मँजने दिया तत्पश्चात कविता लिखी है। जाहिर है कि जितेंद्र का अनुभव-संसार व्यापक है। अतः उनकी रचना की दुनिया भी वैविध्यमयी है। जीवन के विविध संदर्भों और परिप्रेक्ष्यों, उसकी जटिलताओं और विडंबनाओं, सुख और दुख की स्थितियों, अँधेरे और उजले चित्रों आदि को रचनाकार ने कविता का विषय बनाया है। फलस्वरूप, जितेंद्र की कविताएँ वायवीय नहीं लगती हैं बल्कि विश्वसनीय प्रतीत होती हैं। पाठक को लगता है कि उसके अनुभवों को कवि ने शब्दबद्ध किया है। वह कविता से जुड़ता चला जाता है। तादात्म्य स्थापित होता है। इस तादात्म्यता में जितेंद्र के निष्कपट और सहज भाव-रूप की बड़ी भूमिका होती है। अपनी पीढ़ी के रचनाकारों की तुलना में जितेंद्र की विशिष्ट पहचान इसलिए है कि वे शब्दाडंबरों से अपने पाठकों को गुमराह करने में विवास नहीं करते। कविता की संवेदना को संप्रेषित करने के लिए जटिल शब्दावली का सहारा नहीं लेते। जल्द से जल्द पाठकों तक पहुँचते हैं। ऊपर से देखने पर ये शब्द सीधे और सहज प्रतीत होते हैं पर चिंतन-मनन के बाद इनमें निहित अर्थ-गांभीर्य प्रकट होता है। यूँ कहा जा सकता है कि साधारण का असाधारण भावबोध से युक्त होकर इनकी कविताओं ने समकालीन कविता में अलग पहचान बनाई है। जितेंद्र की कविताओं में निहित शक्ति और सामर्थ्य ने उन्हें अपनी जगह दिलाई है जो कवि के जीवनानुभवों से उत्पन्न हैं।

(2)

जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताएँ 1991 में महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं। सराही भी जाती हैं। यह समय भारतीय संदर्भ में काफी महत्व रखता है। भारत ही क्यों पूरी दुनिया इसी दौर में बड़े उथल-पुथल से गुजरती है। यह उथल-पुथल आज भी जारी है। सोवियत संघ का विघटन हुआ। विश्व पूँजीवाद ने अपना विजय ध्वज फहराना शुरू कर दिया। वर्ल्ड बैंक और आई.एम.एफ. का वर्चस्व सामने आया। आर्थिक विकास का ढोंग रचा गया। भूमंडलीकरण के नाम पर मुक्त बाजार व्यवस्था प्रचलित हो गई। इससे उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिला। विकास के नाम पर मॉल और 'बिग बाजार' खड़े किए गए। कंक्रीट का जंगल फलने-फूलने लगा। जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करने लगीं बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ। राष्ट्रीयता और संप्रभुता पर भी खतरे मँडराने लगे। पूँजी अति शक्तिशाली हो गई और आर्थिक ताकतें अधिक ताकतवर हो गईं। आम आदमी का संकट गहराने लगा। विकसित राष्ट्रों ने भारतीय राजनीति को भी परोक्ष ढंग से नियंत्रित करना शुरू कर दिया। राजनीति ने सदा ही भारतीय जनता को लूटा है, छला है और शोषित किया है। भूमंडलीकरण की आँधी के बाद दुनिया को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। एक ओर भूमंडलीकृत हिस्सा तो दूसरी ओर इस प्रक्रिया से बाहर रह गया हिस्सा। पहले हिस्से में सट्टेबाजियाँ, भ्रष्टाचार, अपराधीकरण आदि को फलने-फूलने दिया गया ताकि कॉर्पोरेट पूँजी का उत्तरोत्तर विकास हो। दूसरी ओर, क्रय-शक्ति के अभाव में रहने वाली बहुसंख्यक आम जनता को पूँजी ने निरर्थक साबित किया है। 'वैश्‍विक गाँव' में केवल वे शामिल हैं जिनमें क्रय-शक्ति मौजूद है। पूँजी ने मीडिया को अपना दास बना लिया तो मीडिया दास ने भूमंडलीकरण और पूँजी की महिमामंडित करने का बीड़ा उठा लिया।

भूमंडलीकरण के दौर में बाजार का महत्व बढ़ता गया। पूरी दुनिया को मंडी में तब्दील करने का सपना लेकर भूमंडलीकरण सामने आया। यानी भूमंडलीकृत देश भूमंडीकृत बन गए। मुक्त बाजार, मंडी तंत्र आदि का एक सीधा अर्थ होता है 'अमेरिकी दादागिरी'। हथियारों की खरीद-फरोख्त हो अथवा देशी वस्तुओं की पेटेंट व्यवस्था हो, सीमा-संघर्ष हो या क्षेत्रीय युद्ध, गृह युद्ध हो या कोई परियोजना सर्वत्र अमेरिकी वर्चस्व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बहाने सामने आने लगा।

भूमंडलीकरण के नाम पर अपने उदात्त सांस्कृतिक वैविध्य को समाप्त करने की भी साजिश रची जाने लगी। एक ही तरह के खान-पान, वेश-भूषा, भाषा, जीवन-पद्धति आदि को प्रोमोट करते हुए भूमंडलीकरण ने 'भारतीयता' को उखाड़ फेंकने का भी षड्यंत्र रचा है। फलस्वरूप, हमारी जीवन-शैली गहरे रूप से प्रभावित हो रही है। व्यर्थ ही चमक-दमक के सामने हमारे पुराने सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य बाधित हो रहे हैं। एक नई संस्कृति पनप रही है उपभोक्ता संस्कृति, इसमें सब कुछ खरीदा-बेचा जा सकता है। मनुष्य भी एक प्रॉडक्ट मात्र है। मानवता खतरे में है। मानवता का कोई बाजार मूल्य नहीं होता है तो उपभोक्ता संस्कृति को उसकी रक्षा की कोई चिंता नहीं है। भूमंडलीकरण सर्वग्रासी दैत्याकार रूप धारण कर चुका है। ऐसी परिस्थितियों में युवा-कवि जितेंद्र का कविता के क्षेत्र में आगमन होता है। स्वाभाविक है कि अपने समय की चिंता और समय की विकृतियों को जितेंद्र कहाँ तक उकेरते हैं, उसकी परख होनी चाहिए। यह भी परखा जाना चाहिए कि यह युवा कवि भूमंडलीकरण के सच को किस रूप में ग्रहण करता है? क्या उसका विरोध करता है या समर्थन? यदि विरोध है तो किन औजारों से किस रूप में संघर्ष करता है? अपने समय के अंतर्द्वंद्व और दरारों को कितनी मजबूती के साथ पकड़ता है? साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि उसकी रचनाएँ आने वाले समय के लिए कितना उपयोगी साबित हो सकती हैं।

पूँजी की विकरालता सर्वत्र फलीभूत हो रही है। राष्ट्रीय सरहदों को पारकर दुनिया के कोने-कोने में पूँजी के दुष्प्रभाव दिखाई पड़ रहे हैं। पूँजी अपना खेल खेलने के लिए तमाम सीमाओं, मर्यादाओं को तोड़ रही है। भूमंडलीकरण के पैरोकारों की दृष्टि में राष्ट्रीयता, अपनी भाषा-संस्कृति आदि विकास के बाधक हैं। पूँजी की तानाशाही पर अपनी चिंता जाहिर करते हुए जितेंद्र लिखते हैं -

''पूँजी की रेल-पेल
धक्का-मुक्की में पलकर
जवान होता है जब लड़का

वह आलू को आलू
और टमाटर को टमाटर की तरह
चखना चाहता है।''
(अनभै कथा, पृ. 94)

दरअसल, यहाँ जवान हो रही पीढ़ी का विद्रोह है जो अपने समय की सच्चाई को जानना-समझना चाहती है। भटकना या भरमाना नहीं चाहती। पूँजी की चालाकियों के सामने अपने को तिरोहित भी नहीं करना चाहती है। पूँजी अपने मुनाफे के लिए जो लाभ का जाल बुनती है उसका शिकार बनना स्वीकार नहीं करती है। जितेंद्र का कवि पूँजी के छल-कपट से परिचित है। इसलिए वह उसकी कपट-लीला को अनावृत करता है। पूँजी के खेल से चीजों का प्राकृतिक गुण-धर्म विनष्ट हो रहा है। इससे भी चिंता की बात है कि जीवन की स्वाभाविकता समाप्त होती जा रही है। गाँवों में 'गाँव' बचा नहीं रहा। न वहाँ चहल-पहल बची है और न बच्चों की किलकारियाँ। पूँजीवादी लोलुप सत्ता ने ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि अर्थ के आकर्षण के चलते 'कच्ची उम्र के छोकरे' नगरों-महानगरों में बँध गए हैं। मासूमियत, सहजता, स्वाभाविकता को बचाए रखने की बड़ी जिद है कवि जितेंद्र की। साथ ही, इनके हंताओं की जमकर खबर लेना भी नहीं भूलते हैं वे। भूमंडलीकरण, बाजार, पूँजी, उदारीकरण, निजीकरण की साँठ-गाँठ से कवि परिचित है। कैसा प्रतिकूल समय आ पहुँचा-

''देखते ही देखते
गाँव से छोकरे गए
मन से हुलास
इमली से खटास गई
आम से मिठास
महुए से रस गया
आँखों से नींद।''
(यथोपरि, पृ. 110)

आज के दौर में बाजार ने अपनी स्थानीयता खोकर वैश्‍विक रूप ग्रहण कर लिया है। 'ग्लोबल मार्केट' की वस्तुएँ सर्वत्र पहुँच रही हैं। वहाँ भी जा पहुँची हैं जहाँ बिजली, सड़क, शिक्षा से भी लोग वंचित हैं। बाजारवादी अर्थव्यवस्था में केवल एक ही मूल्य होता है, वस्तु का मूल्य। वस्तु की कीमत सर्वोपरि हो जाती है। यह अलग बात है कि बाजारवाद ने मनुष्य को, मानवीय संवेदनाताओं तक की वस्तु के मोल पर बेचना चाहा है। ऐसा भी देखा जाता है कि मनुष्य किसी वस्तु की तुलना में ठिगना और बौना साबित हो जाता है। बाजार के सामने मनुष्य अपने घुटने टेक देता है। संचालन का सूत्र बाजार और पूँजी के हाथों सौंप देता है। नियंत्रण की डोर उन्हें पकड़ा देता है। उससे दो-चार नहीं हो पाता। यह अत्यंत चिंता का विषय है। बाजारवादी अर्थ-व्यवस्था में बाजार तो चाहेगा कि विचार का अंत हो जाए। परंतु कवि प्राण ऐसी स्थिति में व्यथित हो उठता है। दुनिया चाहे रचनाकार की हो या कलाकार की वह बाजार से मुक्त कहाँ हो पाता है? वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह के दाने निश्चय कर लेते हैं ''अब हम मंडी नहीं जाएँगे''। यह है कवि का प्रतिरोध और विद्रोह। केदार जी स्पष्ट कहते हैं - ''यह बाजारों का समय है।'' बिल्कुल बदला हुआ समय है। जितेंद्र इस बदलते समय के बदलते मिजाज को शब्द-चित्र में कैद करते हैं अपनी अपेक्षातया लंबी कविता 'रूमाल की तरह' में। 1998 से 2005 तक आते-आते कितना कुछ बदल जाता है कितनी तेजी के साथ -

''रिश्तों के बीच आ गया है पैसा
जैसे खाने में दाँतों के नीचे कोई कंकड़''
(असुंदर सुंदर, पृ. 121)

इसी कविता में ही कवि भूमंडलीकृत समय और समाज की दशा-दिशा से बेचैन दिखाई पड़ता है -

''पर यह समय शापित है
इन दिनों
बाजार के इतने चेहरे दिखते हैं एक साथ
कि मिथकों में साँस ले रहे सारे मायावी चरित्र
मिलकर भी नहीं बना सकते उतने चेहरे''
(यथोपरि)

यहाँ भूमंडलीकरण और बाजारवादी व्यवस्था पर कवि की चिंता जाहिर होती है। बाजारीकरण के दौर में कुरुचि और विकृति को सुंदर घोषित कर उसका विक्रय हो रहा है। वास्तव में यहाँ जो बाजार मौजूद है वह केवल क्रेता और विक्रेता का स्थान भर नहीं है। यह एक अखाड़ा भी है। इस अखाड़े में पश्चिम का पहलवान, दैत्य पटकता रहता है। हम उसके जाल में फँसते चले जाते हैं। मानवीय संबंध अत्यंत प्रभावित होता है। इस बाजार में सबकुछ बिकता है। सुख-दुख, प्रेम-हिंसा, क्रूरता आदि भी बेचकर मार्केट से लाभ हासिल किया जा रहा है। इसने हमारा सौंदर्यबोध भी बदल दिया है। हमारी स्वाभाविकता तक को छीन लिया है। कवि उसके 'चेहरे' की कारगुजारियों का उन्मीलन करता है। अपने समय और समाज में व्याप्त भूमंडलीकरण की कुरीतियों को उघाड़कर रख देता है। शापित समय' लील लेना चाहता है हमारी इच्छाओं और अभीप्साओं को। वह अपने उदर में समा लेना चाहता है हमारे अपनेपन और आत्मीय संबंधों को। हस्तगत कर लेना चाहता है, वह हमारे निजी क्षणों को भी। जितेंद्र के शब्दों में -

''उसके मुँह से चू रही है लार
वह बढ़ रहा है
हमारी इच्छाओं की डोर थामे
अब वह लपकना चाहेगा हमारी आत्माओं को
जिनका इस्तेमाल करना चाहता है वह
रूमाल की तरह।''
(यथोपरि, पृ. 122)

मनुष्य बेतहाशा अंधी दौड़ में शामिल हो रहा है। मनुष्य व्यक्ति में तब्दील हो रहा है और समाज भीड़ में। संबंधों की ऊष्मा अनजान-बेपहचान में बदल रही है। पूँजी को सर्वोपरि मान लिया जाता है। पैसा बोलता है। भूमंडलीकरण के दौर में जीवन के सारे अर्थ बदल चुके हैं। मुहावरे बदल रहे हैं। आस्था और विश्वास, प्रेम और सहानुभूति जैसे मानवीय गुणों की होली जलाई जा रही है -

''अब कस्बों में बहुत दिनों तक
चल नहीं पाता काम
विश्वास और भरोसे पर
अब वहाँ अपना अर्थ बदल रहे हैं मुहावरे
समा रहे हैं तेजी से बाजार के पेट में''
(यथोपरि, पृ.67)

नब्बे के दशक में उन्मुक्त पूँजीवाद एवं उदारीकरण ने उपभोक्ता संस्कृति को भरपूर खाद दी। हम सभी आज उपभोक्ता बनकर रह गए हैं। उपभोक्तावादी सांस्कृतिक भूमंडलीकरण, बुर्जुआ संस्कृति की पराकाष्ठा के साथ प्रारंभ हुआ। जीवन के ऐश-ओ-आराम की सारी चीजों और भौतिक सुखों को ही सर्वोपरि स्थान दिया गया। उपभोक्तावाद का पालन-पोषण मीडिया, विज्ञापन के जरिए होने लगा। आज के समाज में विज्ञापन संस्कृति एक 'अति अनुकरणीय' (हाईपर सिमुलेटेड) संस्कृति है जो किसी भी समूह के नियंत्रण से परे है। खाओ-पीओ और मौज उड़ाओ की हिमायत करती है यह उपभोक्तावादी संस्कृति। मर्यादा और सामाजिक विधि-निषेध की परवाह भला इसे कहाँ है? उपभोक्ता संस्कृति एक असाध्य महामारी के रूप में फैलती जा रही है। जीवन मूल्यों को धता बताते हुए यह खूब फल-फूल रही है। बाजार निरंतर अपने नए उपनिवेश बनाने की फिराक में रहता है। यह सब पर अपना शिकंजा कसता जा रहा है। कमलनयन काबरा लिखते हैं - ''भारत का धनी-मानी, शहरी तबका पूरी तरह उपभोक्तावाद की चपेट में है और पश्चिम के उपभोग स्तर तथा जीवन प्रणाली की हू-ब-हू नकल करना उनके लिए उपलब्धि के नए मानदंड बन गए हैं।'' (काबरा, कमल नयन - भूमंडलीकरण के भँवर में भारत, पृ. 114) आज यह निम्न वर्ग में फैलने लगी है। उपभोक्तावादी मानसिकता तेजी से विकसित हो रही है। कमलनयन काबरा इसका पूरा प्रसार शहरी तबके तक सीमित मानते हैं परंतु कवि जितेंद्र इसकी व्याप्ति निम्नवर्ग तक के लोगों में देखते हैं। उपभोक्ता संस्कृति द्वारा फैलाई जा रही अपसंस्कृति का 'रमिया' के माध्यम से विरोध करते हैं। विज्ञापन के मायाजाल में फँसी आम जनता की स्थिति से रू-ब-रू कराते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा पश्चिमी देशों की सौंदर्य सामग्री के दिन दूना रात चौगुना बाजार की कपट-लीला का पर्दाफाश करते हैं -

''रमिया टी.वी. पर अधनंगी लड़कियों को देखकर
कोसती है शहर की संस्कृति को
समझती है लड़कियाँ खुद नंगी हो गई हैं
शहर को जहर मानती है रमिया
रमिया पर्दे पर जो देखती है
उसे ही सच मान लेती है
जिंदगी में आँच सहकर भी
पर्दे के पीछे नहीं जाती रमिया।''
(जितेंद्र श्रीवास्तव, इन दिनों हालचाल, पृ. 46-47)

भूमंडलीकरण आज का सच है। लेकिन, सवाल यह है कि क्या हम भूमंडलीकरण के भँवर में निःशब्द फँसते जाएँ? यह चुपके से हमारा सबकुछ हमसे छीन ले और हम चुप्पी साधे रहें? क्या हम जुबान तक न खोलें? यह मानकर बैठ जाएँ कि निहत्था होकर दैत्य से लड़ा नहीं जा सकता? कवि का प्रतिरोध है। वह निहत्था भी नहीं है। वह भूमंडलीकरण, उपभोक्ता संस्कृति की गलत नीतियों से जूझना चाहता है। उसके पास अपनी भाषा, संस्कृति अपने लोक आदि की विरासत है। और भी है अपने प्रेम पर सघन आस्था। इन्हीं औजारों के सहारे वह संघर्षरत होना चाहता है जिन्हें भूमंडलीकरण उससे छीन लेने की तमाम साजिशें रचता आ रहा है। कवि कहता है -

''फिर भी हम
अपनी भाषा में चिल्लाएँगे
दर्द के विरुद्ध
विद्रोह के स्वर में हमारे टूटे-फूटे शब्द
तुम्हारी संस्कृति से टकराएँगे।''
(यथोपरि, पृ. 31)

भूमंडलीकरण के संदर्भ में जितेंद्र की कविताओं का विश्लेषण हो और उनकी लंबी कविता 'तेरह वर्ष बाद एक दिन जे.ए.यू. में फिर' की चर्चा न हो तो बात पूरी नहीं होगी, 'पाखी' के अगस्त, 2011 अंक में यह कविता पहली बार प्रकाशित हुई थी। बाद में जितेंद्र के पाँचवें कविता-संग्रह 'कायांतरण' में इसे संकलित किया गया है। एक उम्दा कविता है यह। सहजता के साथ जो कुछ भी रचा गया है उसके संदर्भ और परिप्रेक्ष्य उतने सहज प्रतीत नहीं होते हैं। दरअसल, यही जितेंद्र की सबसे बड़ी खूबी है कि साधारण को असाधारण बना देते हैं। मीडिया विशेषज्ञ दिनेश श्रीनेत लिखते भी हैं - ''जितेंद्र अपनी कविता में वह संभव करते हैं, जिनके बारे में बहुत से कवि सिर्फ सोचते रह जाते है।'' (यथोपरि, फ्लैप से) कवि का नजरिया जे.एन.यू. में विकसित होता है। गोरखपुर में उसका बीजवपन हो चुका था।

जे.एन.यू. सिर्फ एक विवविद्यालय नहीं है। यह तमाम बुद्धिजीवियों, चिंतकों, साहित्यकारों, चित्रकारों आदि के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। इसका अपना वैभव है, ऐतिहासिकता है और परंपरा भी। कवि जितेंद्र का इस संस्थान के साथ लंबा अनुभव रहा है। उनकी स्मृतियाँ हैं और है संलग्नता। यह कविता जे.एन.यू. केंद्रित जरूर है परंतु जे.एन.यू. के परिसर तक सीमित नहीं है। जे.एन.यू. बस एक नाम है। किसी भी विवविद्यालय के लिए इसकी व्याप्ति हो सकती है। इसलिए इस कविता का फलक बड़ा है। इसका व्यापक संदर्भ है। इसके विविध परिप्रेक्ष्य मौजूद हैं।

आज शिक्षण-संस्थाएँ अपनी गरिमा खोती जा रही हैं। उनका मान या स्तर अधोगामी हो रहा है। अंक खूब प्रदान किए जा रहे हैं परंतु गुणवत्ता में कमी आ रही है। इस कविता में यह चिंता भी मौजूद है। दरअसल, कवि इस स्थिति से आहत होता है और अपनी पीड़ा को बड़ी शिद्दत के साथ पेा करता है।

तेरह वर्ष पश्चात जे.एन.यू. में पहुँचकर कवि वहाँ की प्रकृति, मिट्टी से निकलने वाली सोंधी गंध और उन्मुक्त नृत्यरत मोर की स्मृति में डूब जाता है। अतीत की यह स्मृति सुखद भी, मनोरम भी। वर्तमान वैसा नहीं है। यहाँ केवल स्मृति नहीं है। स्मृति ही कविता नहीं बनती। कविता के प्रारंभ में ही इस स्मृति से कवि की पर्यावरण चिंता प्रकट होती है -

''प्रकृति ही प्रकृति थी चारों ओर
बारिश में उठती थी
मिट्टी से सोंधी गंध
नृत्य करते थे मोर उन्मुक्त।''
(कायांतरण, पृ. 102-103)

'मोर उन्मुक्त' के माध्यम से कवि अपने विश्वविद्यालय के उन्मुक्त जीवन की ओर भी इशारा कर रहा है। यहाँ न संकीर्णता थी, न भेदभाव की दीवार खड़ी थी और न ही किसी प्रकार का कोई बंधन था। कवींद्र रवींद्र ने इस संदर्भ में कहा था - ''ह्वेर दी माइंड इज विदाउट फियर एंड द हेड हाई।'' ऐसी स्थिति में जे.एन.यू. में होने का आशय था 'सपनों के नगर में होना।' प्रसंगतया उल्लेख किया जा सकता है कि इस लंबी कविता के प्रारंभ, मध्य और अंत में सपनों का जिक्र है। इससे कविता की क्रमबद्धता और तारतम्यता बनी रहती है। क्रम टूटता नहीं। इस कविता में भी क्रमबद्धता का कलात्मक निर्वहन है। पंजाबी कवि पाश ने कहा था - ''सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।'' सपना महज कल्पना नहीं होता है। यह जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करने वाला साधन भी होता है। पूरे देश के चुनिंदे नौजवान छात्रों के तमाम सपने विश्वविद्यालय के प्रांगण में पलते-बढ़ते हैं। इन सपनों के संबंध व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं होते, राष्ट्र तक भी नहीं। ये सपने पूरे वैश्‍विक परिप्रेक्ष्य में संदर्भित होते हैं। युवा-वर्ग के उन तमाम सपनों की ओर भी कविता संकेत करती है। इसलिए कवि की दृष्टि में जे.एन.यू. सपनों का पर्याय था। विचार चाहे वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। शर्त बस इतनी कि वह -

''अग्रगामी बनाने वाले
सपने पैदा करने वाले
और उनको परिणति तक पहुँचाने वाले हों।''
(यथोपरि, पृ. 105)

सपनों को सार्थक बनाने वाले किसी भी विचार का सम्मान था कवि के जे.एन.यू. प्रवास काल में। ऐसा होना स्वस्थ वातावरण का प्रतीक था। कवि ने स्वीकार भी किया है- ''मैंने पाई थी सपने देखने की तमीज।''

कविता का काल है 1994 अर्थात बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक। यह व्यापक परिवर्तन का दौर था। 1990 को एक तरह का प्रस्थान बिंदु माना जा सकता है। इस दौरान कविता में परिवर्तन दृश्यमान होते हैं। हिंदी कविता भी तमाम उथल-पुथल से गुजरती है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिप्रेक्ष्य तेजी के साथ बदलने लगते हैं।

भूमंडलीकरण की आँधी ने मानव-मूल्यों को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। सांप्रदायिक ताकत नए सिरे से सिर उठाने लगी। मंदिर-मस्जिद का विवाद गहराने लगा। नरसंहार हुआ। आर्थिक साम्राज्यवाद अपना वर्चस्व कायम करने लगा। इस पृष्ठभूमि में आलोच्य कविता रचित है। खुशी की बात है कि जितेंद्र की इस कविता में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ, परिघटनाएँ चिंता बनकर उभरती हैं। इसमें विशेष कालखंड का चित्रण हुआ है। पिछली शताब्दी के अंतिम दोनों दशक कविता में झाँकते नजर आते हैं। वास्तव में जिस कविता में कालखंड को अनदेखा किया गया हो, वह कविता टिकाऊ नहीं होती। देश-दुनिया की समस्याओं से जे.एन.यू. पीड़ित था। बुद्धिजीवी वर्ग चिंतित था। अत~ः कवि ने भी अपनी चिंता जाहिर की है, प्रतिबद्धता दिखाई है और परिघटनाओं के दुष्परिणामों की खबर ली है। मसलन-

''उस टूटन का दुख घुला हुआ था।''
(यथोपरि, पृ. 103)

''भारत लुढ़कने लगा था
मुक्त बाजार की खाई की ओर।''
(यथोपरि, पृ. 103)

इस संदर्भ में कवि ने 'अयोध्या कांड का अँधेरा' और 'मंडल कमीशन की गूँज' का भी उल्लेख किया है। साथ ही, नेपाल का बदलता परिदृय है। पेरू की तसवीर भी। चेग्वेरा की पुत्री के आगमन के बिंब हों या फिर 'कौन बनेगा छत्रपति' का पूरी कविता में कवि ने बहुत ही कम शब्दों में बहुत कुछ कहने की कला हासिल की है। यह है कवि की सामर्थ्य। दृष्टव्य है -

''जब चारों तरफ होता है श्याम रंग
तब भी कहीं-कहीं चमकता है सफेद बिजली की तरह।''
(यथोपरि, पृ. 104)

परिवर्तन अवश्यंभावी है। उस परिवर्तन का स्थान इतिहास में होता है जो मनुष्य के हित के लिए हो। सामाजिक प्रगति का सूचक हो। भूमंडलीकरण के दौर में सब कुछ बदल रहा था। जे.एन.यू. का भी बदलना स्वाभाविक था। परंतु वैचारिक सघनता के चलते पूँजीवादी शक्तियों को आँखें मूँदकर स्वीकार नहीं किया जे.एन.यू. ने। उसका विरोध किया, प्रतिरोध किया। इसमें उसे विजय मिली या पराजय, महत्व इसका नहीं था। इस बात का अधिक महत्व है कि उनका विरोध किया गया। श्रीकांत वर्मा ने जो कभी कहा था ''मगध में विचारों की कमी है'', कम-से-कम तेरह वर्ष पूर्व जे.एन.यू. की वैसी स्थिति न थी। यह हमें आश्वस्त करती है।

कविता के मध्यभाग में जे.एन.यू. कल्चर की खूबियों की चर्चा है। काश ये खूबियाँ अन्य शिक्षण संस्थानों की होतीं... ''सिर्फ नौकरी पाने की पाठशाला न था जे.एन.यू.'', दूसरे को तवज्जो देना, अन्य के महत्व को स्वीकारना, शिक्षकों का छात्रों के प्रति स्नेह आदि स्वस्थ वातावरण के सूचक हैं। ऐसे वातावरण में ही सुनहरे सपने देखे जा सकते थे। तभी तो इमरान, रजी, अहमद, इकबाल जैसे मित्रों की स्मृति बार-बार आती है। यहाँ भी सांप्रदायिक वैमनस्य की विष ज्वाला को पराजित करती है कवि की मित्रता। सांप्रदायिक सौहार्द्र की कामना बलवती दिखती है।

उपभोक्तावादी सभ्यता और अवसरवाद के दौर में युवा नेता समझौतावाद की ओर उन्मुख हो रहे हैं। जितेंद्र इस स्थिति में चंद्रशेखर सरीखे छात्र-युवा नेताओं का स्मरण करते हैं। ऐसे नेताओं का आज न तो ओज बचा रहा और न तेज। तभी वे लिखते हैं-

''यह हमारे समय की विडंबना है
कि हमारे बीच तेजी से कम हो रहे हैं
चंद्रशेखर जैसे ओजस्वी, तेजस्वी और निष्कवच लोग।''
(यथोपरि, पृ. 108)

सूचनाओं का आदान-प्रदान भर हो जाए तो छात्र का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है। उन्हें 'इन्वाल्व' होना पड़ता है। साहित्यिक आयोजनों में शामिल होना, सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन करना आदि उन्हें बहुत कुछ सिखाते हैं। कवि ने परोक्ष ढंग से यह स्वीकार किया है कि कविता की बात उसकी परंपरा से जुड़कर समझी जाती है, उससे कटकर नहीं।

इस कविता में अतीत साकार हो उठा है वर्तमान में। 'झेलम लॉन' में रात भर अध्यक्षीय उम्मीदवारों के गर्मागर्म भाषण, उनकी बहसें-मुवाहिसें, पक्ष-प्रतिपक्ष के विचार आदि जीवित हो उठते हैं - ''अभी वहाँ पुरानी बहसों की आँच बाकी थी।''

उक्त कविता में जितेंद्र का संवेदना-जगत जीवन मूल्यों से संबंधित है। टूटते जीवन मूल्यों के बाधक तत्वों को कवि ने पहचाना है, उनसे सावधान किया है। एक विशिष्ट और है इस कविता का, इसमें निराशा नहीं आशा है, अनास्था नहीं आस्था है। उम्मीदें मौजूद हैं। कवि ने लिखा है-

''बहुत कुछ बीत गया है जे.एन.यू. में
लेकिन बहुत कुछ बाकी है
और जो बाकी है उसको बचाने की जिद
होनी चाहिए सबमें।''
(यथोपरि, पृ. 110)

जे.एन.यू. को स्थानवाची न माना जाए तो कितना व्यापक अर्थ द्योतित होता है उपर्युक्त पंक्तियों से। जो कुछ शेष है उसे सम्हालें, उसे बचाए रखने का प्रयास करें तो निराशा के घने अंधकार में आशारूपी दामिनी कौंध सकती है। इससे अनंत संभावनाओं के द्वार उन्मुक्त होंगे। एक नया सवेरा होगा।

अपनी अन्य कविताओं की भाँति जितेंद्र ने इस कविता में भी लोकभाषा के शब्दों को अनायास पिरोया है। यह कविता बार-बार पढ़े जाने की माँग करती है। शब्दों के वाग्जाल या चक्रव्यूह में कविता उलझाए नहीं रखती। छोटे-छोटे पदों से और सीधेपन से कहकर मानों कवि ने संवाद स्थापित किया है अपने पाठकों से। फलस्वरूप, इस कविता की पठनीयता बनी रहती है। गंभीर से गंभीर विषय को सहज भाषा में व्यंजित करने की कला कवि जितेंद्र के पास मौजूद है। देश और काल के तमाम सवालों से टकराती है यह कविता। बेहतर विकल्प की तलाश भी करती है।

अपने समय, समाज, देश-परदेश की समस्याओं और चिंताओं को समेटने वाली इस लंबी कविता का फलक व्यापक है। यह एक बहुआयामी कविता है। वर्तमान समय की समीक्षा है। बदले हालातों से निजात पाने के लिए वैचारिक खुराक देने वाली कविता है।

(3)

जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं में आम आदमी की मौजूदगी बड़ी शिद्दत के साथ मिलती है। कवि इस आदमी से संवाद करता है। यह संवाद आत्मीयतापूर्ण है। इसी क्रम में कविताओं में यथार्थ के विविध रूप उभरकर आते हैं। जीवन की विडंबनाओं का चित्रण होता है। साथ ही, श्रम और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय भी। आत्मसंघर्ष भी चित्रित होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो श्रमशील मनुष्य के प्रति जितेंद्र की प्रतिबद्धता औरों से भिन्न है। गाँव से शहर, शहर से महानगर, महानगर से पहाड़ और फिर से महानगरीय मेहनतकशों की आंतरिक दुनिया में कविता पहुँचाती है। स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कवि ने आम आदमी या मेहनतकश लोगों के जो चित्र अंकित किए हैं वहाँ सहानुभूति नहीं बल्कि संवेदना है। तभी तो कवि के अंतर्मन ने सुप्त व्यक्ति के पीछे छिपे अथाह दु:ख को जानने-समझने की गहरी ललक दिखाई है। 'एक सोते हुए आदमी को देखकर' शीर्षक कविता में कवि ने अपने से पूछा है -

''क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि वह सबसे दुखी प्राणी हो धरती का
और दुख को मुँह चिढ़ाने के लिए
अभिनय कर रहा हो निश्चिंत सोने का?''
(असुंदर सुंदर, पृ. 12)

इसी प्रकार 'किरायेदार की तरह' कविता में लोकल ट्रेन में सवार होने वाली गाना-वाना गाकर माँगनेवाली औरतों की व्यथा-कथा बड़ी मार्मिक है। हाशिये की औरत के प्रति समाज की उपेक्षा भी चित्रित हुई है। 'भीतर ही भीतर तिलमिलाती' रहती हैं -

''पर गायब नहीं होने देतीं होठों की हँसी
उन्हें हँसाता रहता है पेट का डर।''
(यथोपरि, पृ. 74)

भैंस चराने वाला गूँगा-बहरा बोधू अपने ''पियराये दाँतों और झौंसाये चेहरे'' के साथ पाठक के सामने उपस्थित होता है। बोधू के विलक्षण शब्द-चित्र अंकित हैं -

''प्रतिरोध में पी जाता था अपने आँसू
और अगले ही घंटे फिर लग जाता था काम पर
जैसे कोई और चारा ही न हो उसके पास''
(यथोपरि, पृ. 119)

जितेंद्र की कविताओं में मजदूरों की विपन्न दशा भी रूपायित हुई है। मजदूरों को छल-कपट नहीं आता। ईमानदारी और मेहनत से प्राप्त मजूरी से वे गुजारा करते हैं। आज के संदर्भ में ईमानदारी का कितना महत्व है, यह किसी से छिपा नहीं हैं। कवि-मन इस ईमानदारी को देखकर अत्यंत प्रसन्न होता है। चारों ओर भ्रष्टाचार और घोटालों का बोलबाला है जिससे समाज तथा देश प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में 'अपनी आत्मा को बचा पाना गर्व और गौरव का विषय है। प्रशासन लूट रहा है और व्यवस्था की लूट भी जारी है। इससे महँगाई तो बढ़ ही रही है; मजदूरों की स्थिति विपन्न हो रही है। बावजूद इसके, मजदूर विश्वास के पात्र हैं। इन्हीं के चलते हमारा समाज जिंदा है, विश्वास बना हुआ है और ईमानदारी कुछ हद तक सही, जीवित तो है-

''श्रम की आँच में तपे इनके चेहरे...
इन्होंने पुतलियों की तरह बचाया है अपनी आत्मा को
ये पहरुए हैं विश्वास के
ये पहचान हैं अपनी मिट्टी की।''
(यथोपरि, पृ. 53)

जितेंद्र की कविताओं में साधारण जन और उपेक्षित लोगों के जीवन अंकित हुए हैं। आम आदमी या मामूली आदमी की दर्दनाक कहानी पेश करती है जितेंद्र की कविता 'खबर'। दुकान के नौकर की मालिक की लापरवाही के चलते हुई मृत्यु कोई अकेली घटना नहीं है। ऐसा अक्सर होता है कि आम आदमी मारा जाता है। राजेश जोशी की कविता 'दो पंक्तियों के बीच' में भी 'इत्यादि' वर्ग की ऐसी हालत होती है। जितेंद्र की प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है-

''वह एक अदना-सा मजदूर
खींचता था ठेला

बाँधकर पीठ पर बोरियाँ कोशिश करता था हँसने की
आखिर उसकी मौत की खबर से
क्या लाभ साम्राज्यवादियों को, सत्तासीनों को, मीडिया को
जो वे दिलचस्पी लें उसकी जवान मौत में''

 

जिसकी हत्या हुई वह व्यक्ति मात्र नहीं है। दरअसल, वह समूचे वर्ग का प्रतिनिधि है। टाइप चरित्र है। आज ऐसी घटनाएँ बिल्कुल आम बन चुकी हैं। कवि इन्हीं उपेक्षित और पीड़ितों का पैरोकार है। उसने स्पष्ट घोषणा की है -

''मैं कवि हूँ / हूँ कवि उनका
जिनको नहीं मयस्सर नींद आँख भर
नहीं मयस्सर अन्न आँत भर
मैं कवि हूँ / हाँ, मैं कवि हूँ
उन उदास खेतों के दुख का
जिनको सींच रहे हैं आँखों के जल''
(यथोपरि, पृ. 66)

प्रगतिशील चेतना के कवि जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं में मानवीय संवेदना, प्रखर यथार्थबोध और शोषित व्यक्ति के प्रति गहरा लगाव दिखाई पड़ता है। प्रगतिशील चेतना के प्रति सर्वदा अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता प्रदर्शित करते हुए कवि खुलासा करता है -

''इस दुनिया में
जिंदगी महज सत्तासीनों के पास नहीं
उनके पास भी है
जिनके बच्चे खो-खप जाते हैं
तो शासन-प्रशासन की सेहत पर
कोई फर्क नहीं दिखता है
फिर भी दुनिया चलती है
हालाँकि बदल जाती तो बेहतर होता।''
(यथोपरि, पृ. 118-119)

यहाँ प्रचलित शासन-व्यवसथा का खुला विरोध किया गया है। मुट्ठी भर लोगों के लिए दुनिया की सारी सुख-सुविधाएँ हुआ करती हैं। कवि एक बेहतर दुनिया का सपना पाले रखता है जहाँ सभी समान हों। जाति-वर्ण-भेद न हो। सभी का समान अधिकार हो। ऐसी एक दुनिया बने तो कवि का सपना सच हो जाए। जितेंद्र का कवि अपने सपने को पूरा करने का भरसक प्रयास करता है। एक ईमानदार प्रयत्न बना रहता है। यह जितेंद्र की एक खास 'जिद' है और विशेषता भी।

(4)

जितेंद्र ने अपनी पीढ़ी के रचनाकारों से जो विशिष्ट स्थान प्राप्त किया है, इसके कई कारणों में से एक कारण उनका लोक-तत्व है। वास्तव में कविता वही टिकती है जिसमें लोक उपस्थित होता है। तात्कालिकता का चित्रण कविता नहीं कहलाता। विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी से लेकर निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन की कविताओं की कालजयिता बनी हुई है तो इसलिए कि इसमें शास्त्र की तुलना में लोक को अधिक महत्व दिया गया है। हालाँकि, लोक-चित्रण के नाम पर लोक तत्वों को समवेशित कर देने का कोई मतलब नहीं होता है। पहले लोक में जीना पड़ता है, उसमें रचना-बसना पड़ता है। इसके बाद उस लोक को कविता में उतारना होता है। जितेंद्र की कविताओं में लोक का विवेचन करने से पहले अपने समय की प्रसिद्ध कवि अनामिका को उद्धृत करना अनुचित नहीं लगता है - ''जितेंद्र श्रीवास्तव की बड़ी विशेषता यह है कि उनसे अपनी 'सोनचिरई' नहीं बिसरी और लोक-संदर्भों में राजनीतिक विनियोग का सौष्ठव उन्होंने कायदे से साधा। सिर्फ लोक संदर्भों से ही नहीं, शास्त्रीय संदर्भों से (कालिदास से, गालिब से...) इनकी कविता सजग संवाद कायम करती है।'' (सिंह, अनंत कुमार, जनपथ, नवंबर 2011 में अनामिका का आलेख 'जहाँ अनुभव धूप में अपनी देह सुखाता हैं', पृ. 30) कहना गलत न होगा कि जितेंद्र की 'सोनचिरई' कविता 'मास्टर पीस' है। इसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसकी कई सार्थक नाट्य प्रस्तुतियाँ भी हो चुकी हैं। लोक-गाथा को कवि ने अद्भुत सफलतापूर्वक समकालीन कविता के साँचे में प्रस्तुत किया है। किस्सागोई तो है ही। नारी-दृष्टि भी है। नारी की विडंबनाओं की काव्यिक अभिव्यक्ति है। यथार्थ की निष्कपट प्रस्तुति भी मौजूद है। उग्र नारीवाद (रैडिकल फ़ेमिनिज़्म) की दृष्टि से कविता भले ही 'अनफिट' हो जाए लेकिन नारी की सृजनधर्मिता को रेखांकित करने में कवि की कोई चूक नहीं दिखती। पुनः यहाँ नारी पुरुष से किसी भी अर्थ में न्यून नहीं है बल्कि वह पुरुष से श्रेष्ठ साबित होती है। इतना ही नहीं, सभ्यता-समीक्षा की दृष्टि से भी इस कविता का महत्व स्वयंसिद्ध है। नारी जीवन का यथार्थ स्वीकार करते हुए कवि ने जो दृष्टि स्थापित की है, उसकी प्रशंसा जितनी भी की जाए वह कम ही होगी। जहाँ तक स्मरण है, यह कविता 1998 में 'पहल' के किसी अंक में प्रकाशित हुई थी। तब से लेकर आज तक इस कविता ने जो 'माईलस्टोन' अर्जित की है, वह कवि की सर्वाधिक उपलब्धि है। सोहर सुनने के बाद यह कविता लिखी गई है। लोक-परंपरा कविता में तब तक चलती है जब राज-घराने के सभी आत्मीय, बाघिन, नागिन, माँ तथा धरती में से भी सोनचिरई को पनाह देने से इनकार कर दिया। इसके पश्चात कवि लिखता है -

''और मित्रो इसके आगे जो हुआ
वह किसी किस्से में नहीं है।''
(इन दिनों हालचाल, पृ. 22)

यहाँ से कविता में नया पड़ाव आता है, आधुनिकता या यूँ कहें कि समकालीनता जुड़ती है। कवि के इतिहासबोध का अहसास भी कराती है कविता 'सोनचिरई'। इन बातों का विस्तार किए बिना इस कविता के एक अन्य बिंदु को सामने लाना आवश्यक प्रतीत होता है। सोनचिरई की अर्थीं को कंधा देते हैं उसके आठ बेटे। मृत्यु फिर भी उल्लास! मृत्यु में भी प्रेम का अभिषेक! दुर्लभ है ऐसा चित्रण। समकालीन हिंदी कविता की बड़ी उपलब्धि है 'सोनचिरई'। लोक में बिना रचे-बसे ऐसी कविताएँ नहीं जनमतीं। 'इन दिनों हालचाल' के नए रूप में चयन एवं संपादन करने वाले दिनेा श्रीनेत ने सही लिखा है -

''उसने दिल्ली की चौंध और जे.एन.यू. की आधुनिकता में खुद के वजूद को मिटने नहीं दिया। उसने जिद करके स्मृतियों की गठरी अपने कंधे पर लादी और उन्हें हरदम साथ लिए रहा। उसने इनकार किया। हर दूरी से इनकार... जितेंद्र ने लोगों को, ...अपने गाँव को, यहाँ तक कि नदी को उसकी स्मृतियों के साथ शुरू किया। उन्होंने स्मृतियों की पुनर्व्याख्या भी की और 'सोनचिरई' व 'गुर्रा नदी' जैसी अविस्मरणीय कविताओं को रचा।'' (यथोपरि, पृ. 17)

जितेंद्र श्रीवास्तव के 'अनभै कथा' में 'नवान्न', 'बँसुला', 'खुरपी', 'बैल', 'पहाड़; सात कविताएँ', 'धतूरा', 'भुट्टा', 'कुदाल' आदि कविताएँ किसानी सभ्यता और संस्कृति से ही संबंधित नहीं हैं बल्कि लोक-जीवन के सतरंगी बिंब प्रस्तुत करती हैं। इसके बाद के कविता-संकलनों में भी लोक-चित्रण का अभाव नहीं है। जितेंद्र की कविताओं में लोक-जीवन का विविधता के साथ चित्रण मिलता है। लोक के विभिन्न रूपों की मौजूदगी है। कवि की देशजता उसकी विशिष्टता की पहचान है। कवि का 'लोक' नैसर्गिक, अनायास और स्वतः पूर्ण रूप से उभरा है। कृत्रिमता और सायासता से कोसों दूर है।

कवि ने अपने परिवेश के भूगोल को जीवित तो किया ही है, इसके साथ लोक-जीवन को भी उकेरा है। ऐसे दर्जनों शब्दों से जितेंद्र के पाठक रू-ब-रू हो सकते हैं जो लोक से कविता में घुल-मिल गए हैं। कई क्रियारूप भी संभवतः पहली बार हिंदी कविता में प्रयुक्त हुए हैं। तिजहरी (पृ. 15), हरियर-हरियर, पीयर-पीयर (पृ. 20), धधाकर मिलते हैं लोग (पृ. 36), लोक पानीदार (पृ. 36), सोनमछरी (पृ. 71), भरापन (पृ. 74) लट-ओरियान (पृ. 77), मन रूँधित (पृ. 83), छीना-झपटी (पृ. 89), पियराई (पृ. 90) आदि के प्रयोग से खड़ी बोली की कविता समृद्ध हुई है। पुनः इन प्रयोगों से कवि का निजी लहजा भी स्पष्ट होता है। भाषा के प्रति, शब्द-चयन के प्रति जितेंद्र सचेत हैं। दरअसल, 1986 से लेकर 2011 तक यानी पिछले पचीस वर्षों की काव्य-साधना के पश्चात कविता का जो स्वरूप खड़ा होता है वह पाठकों को आकृष्ट करता है। शब्दों की मितव्ययिता जितेंद्र की सामर्थ्य है। बोलने-बतियाने के लहजे में संवादधर्मिता ने पठनीयता को जीवित रखा है।

आज पूँजीवादी शक्तियाँ साम्राज्यवाद की मिलीभगत से लोक को विनष्ट करने के लिए कमर कस रही हैं। समकालीन हिंदी कविता में विजेंद्र के बाद की पीढ़ी में से लोक गायब हो रहा है। दरअसल, लोक को विलुप्त करने के प्रयास के दौर में लोक को स्थापित करने का प्रयत्न अपने आप में महत्वपूर्ण है। लोक को बचाने का मतलब है मनुष्यता को बचाना। साम्राज्यवादी शक्तियों से लोहा लेना भी है। अतः जितेंद्र के सृजन-जगत में लोक से प्रेम परंपरा का निर्वाह करना नहीं है। इसमें कवि के साम्राज्यवाद का विरोध और प्रतिरोध भी समाहित है। जितेंद्र की कविताओं मे सर्वहारा की आशाओं और उम्मीदों के चित्र अंकित हुए हैं। लोक में जीवन धारण करते हुए, उससे अभिन्न रूप से जुड़ते हुए संघर्ष को आधार बनाकर जो लोकधर्मिता खड़ी होती है, उसमें सौंदर्य ओतप्रोत है। वरिष्ठ कवि विजेंद्र ने लिखा है - ''लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र का गहरा संबंध हमारी धरती, जड़ों और जातीयता से है। जो कविता जितनी लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र को रचेगी वह उतनी ही हमारे देशवासियों की क्रियाशीलता तथा इच्छा-आकांक्षाओं को कहेगी।'' (विजेंद्र, सौंदर्य शास्त्र : भारतीय चित्त और कविता, संस्करण, पृ. 81) कवि जितेंद्र की कविता इस अर्थ में भिन्न है कि यह मेहनतकश लोगों के साहस और आस्था के व्यापक अनुभव समेटती चलती है। इसमें कवि के समय, जीवन और स्वभाव चित्रित हुए हैं। कवि का लोक निराला है। यूँ कहा जा सकता है कि कवि का लोक कवि का ही है। अकाल, भुखमरी, बेरोजगारी आदि से पीड़ित लोगों के सौंदर्य को प्रस्तुत करने में कवि सिद्धहस्त प्रतीत होता है। जितेंद्र की लोक-चेतना को अधिक व्याख्यायित न करते हुए केवल कुछ काव्य-पंक्तियाँ प्रस्तुत करना समीचीन लगता है :

''पल्ला गढ़ना हो जुआठ गढ़ना हो
गोड़ा गढ़ना हो पलंग गढ़ना हो
पालना गढ़ना हो चाहे बँसखटिया
कोई भेद नहीं करता बँसला।''
(अनभै कथा, पृ. 42)

''खुरपी न हो जिसके घर/गाँवों में
काम पड़ने पर/पलिहर का बानर हो जाता है वह''
(यथोपरि, पृ. 44)

''एक दिन कुदार चलाया और
बेंवच गया शरीर
अरे मुँह में कौर नहीं पड़ेगा
तो 'छठी का दूध' याद आ जाएगा।''
(यथोपरि, पृ. 71)

''लाल चुनरिया/ओढ़ सँवरिया
विचर रही है खेतों में
हरियर-हरियर फसलों में
पीयर-पीयर माटी में।''
(यथोपरि, पृ. 71)

सूत्र रूप में कहा जा सकता है कि जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताओं में लोक की महत्वपूर्ण उपस्थिति है जो कवि का प्रमुख वैशिष्ट्य है।

पूँजीवादी समाज व्यवस्था में 'प्रेम' भी बिकाऊ है। वह जमाना बीत चुका है कि कबीरदास ने माना था - ''प्रेम न खेती ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।'' आज समाज काफी बदल चुका है। प्रेम का स्वरूप भी बदल रहा है। 'लिव इन टुगेदर' के जमाने में प्रेम की बात करना मध्यकालीनता समझा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि आज की प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रेम की अतीव आवश्यकता है। हिंसा, घृणा, लूट-पाट, दंगों और वैमनस्य के दौर में प्रेम ही एक ऐसा तत्व है जो सारे संसार को एक सूत्र में पिरो सकता है। जितेंद्र की कविताओं में प्रेम का व्यापक रूप में चित्रण हुआ है। इसकी व्याप्ति सुदूर तक है। अतः सही कहा गया है - ''...प्रेम की व्याप्ति जितेंद्र की कविताओं में न केवल स्त्री की आंतरिक दुनिया की वेदनाओं तक फैली हुई है बल्कि इसकी जद में वह सारा समय-समाज दाखिल होता है जो किसी न किसी रूप में कवि के निजी अनुभव का हिस्सा रह चुका है। यहाँ कवि खुलकर स्वीकार करता है कि वह प्रेम ही है जिसने उसे और उसकी संवेदना को अधिक मानवीय, भावाकुल और निडर बनाया है।'' (यथोपरि, फ्लैप से उद्धृत) जितेंद्र के लिए प्रेम एक संबंध है, संपर्क भर नहीं।

साहित्य और प्रेम का अटूट रिश्ता है। सच है कि साहित्य में परकीया प्रेम का आधिक्य रहा है। लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि दांपत्य-प्रेम के मनमोहक चित्र प्रस्तुत नहीं हुए हैं। रबर्ट ब्राउनिंग हों या सीताकांत महापात्र, केदारनाथ अग्रवाल हों या सुरेंद्रनाथ मजुमदार-सभी ने विभिन्न युगों में दांपत्य-प्रेम को प्रतिष्ठित किया है। खुशी की बात है कि कवि ने दांपत्य-जीवन के प्रगाढ़ प्रेम को अंकित किया है बिल्कुल अपने ढंग से, नितांत निरालेपन के साथ। कवि के शब्द बहुत ही कम, पर कहते हैं बहुत अधिक। शब्दों में ही नहीं शब्दों के बीच में भी भावों का संगुफन है। ये भाव कवि-कल्पित नहीं, अंतस की गहराई से उत्पन्न हैं। अनुभव के रस से पगे हुए हैं।

जितेंद्र की कविताएँ बहुआयामी हैं। प्रेम कविताओं के विभिन्न संदर्भ हैं तथा विविध परिप्रेक्ष्य। प्रेम के इतने वैविध्य उनके समकालीन कवियों की रचनाओं में अनुपस्थित हैं। दांपत्य प्रेम पर आधारित कविताओं में प्रकृति, समय, समाज, विचार आदि विभिन्न रूप से घुले-मिले हैं। इन कविताओं में 'वासनाजन्य प्रेम' को महत्व नहीं दिया गया है। साथ-साथ दशकों बिताने के पश्चात उत्पन्न प्रेम की प्रतिष्ठा है। साहचर्य से उत्पन्न प्रेम है यह। 'देह' है पर, देह सबकुछ नहीं है। प्रियतमा से दूर रहकर भी बिल्कुल उसके पास होने के एहसास से कवि भरा रहता है - ''तुम रहती हो / गहरे बहुत गहरे कहीं / मेरी आत्मा के रस में घुली हुई / जीवन रस की तरह।'' (यथोपरि, पृ. 24-25)

'सिर्फ देह' होती तो क्षण भर के लिए एहसास होता। कवि निश्छल रूप से व्यक्त करता है - ''यह प्रेम बोध नहीं क्षण भर का / यह यात्रा है जीव की।'' प्रेम में भौगोलिक दूरी नैकट्य का भाव बनाये रखती है। छोटी-छोटी स्मृतियों व घटनाओं के आधार पर रची गई कविताएँ, पाठक के अंतर्मन को प्रेम से सराबोर कर देती हैं। सैकड़ों कोस दूर रहकर भी प्रेमी स्पष्टतया देख पाता है -

''तुम्हारे माथे पर
उभर आई रेखाएँ
मेरे हाथ की लकीरों जैसी दिखती हैं।''
(यथोपरि, पृ. 23)

अगाध विवास, प्रबल आस्था, समानता से खाद-पानी ग्रहण करती है जितेंद्र की दुनिया। आज के संशयग्रस्त, संदेहग्रसित अविश्वास भरे समय में जितेंद्र की निम्न पंक्तियाँ अत्यंत सार्थक प्रतीत होती हैं -

''तुम्हारा कहीं भी होना
मेरे साथ होना है
मेरा कहीं भी होना
तुम्हारे साथ होना है।''
(यथोपरि, पृ 14)

इस अनोखे प्रेम-संबंध में 'साथ होना' से भी बढ़कर है 'आँख में रहना'। विदाई के वक्त में कवि स्पष्टतया स्वीकार करता है यानी महसूस करता है - ''इतने वर्ष शहर में नहीं / तुम्हारी आँख में रहा हूँ मैं / जब तुम नहीं / फिर मैं कहा!'' (यथोपरि, पृ. 12)

इस संग्रह की एक उल्लेखनीय विशेषता है कि कवि ने अपनी पत्नी-प्रियतमा को अपने से भी अधिक महत्व दिया है। अपनी पत्नी-प्रियतमा के प्रेम को प्रतिष्ठित करता है। कवि का संपूर्ण अस्तित्व 'तुम' पर निर्भर करता है। वह मुक्त-कंठ से 'तुम' की प्रशंसा करते नहीं अघाता - ''जो सब कुछ कर लेती हो हँसती हुई चुपचाप।'' कवि की स्वीकारोक्ति है कि वह 'तुम' जैसा बन पाने की कोशिश करेगा। 'तुम' की तरह बनने, सुनने का प्रयास करेगा। कवि के शब्दों में - ''फिर भी एक इच्छा है मन में / कि अबकी जब मैं घर जाऊँ / तुम अपनी कहो / अपने जैसों की कहो / और मैं सुनूँ उसी तरह / जैसे सुनती हो तुम / वैसे सच-सच बताना / क्या तुम्हें लगता है मैं सबकुछ सुन पाऊँगा / बिल्कुल तुम्हारी तरह।'' (यथोपरि, पृ. 62-63)

ध्यान देने की बात है कि न तो यहाँ 'आइडेंटिटी क्राइसिस' का सवाल है और न ही संबंधों की टकराहट है। रोज-ब-रोज टूटते-बिखरते पारिवारिक संबंधों का दंश भी नहीं है। कवि अपने समय और समाज से बेखबर नहीं है, घरेलू हिंसा, संबंध-विच्छेद, असहिष्णुता से भरपूर समाज के लिए कवि की पंक्तियाँ 'कैप्सूल' बनकर आती हैं। कवि ने अपनी कविताओं में छोटी-छोटी स्मृतियों और मामूली घटनाओं को असाधारण बना दिया है। मसलन, इसी कविता 'बिल्कुल तुम्हारी तरह' की कुछ पंक्तियाँ - ''पर क्या करूँ / कहाँ से लाऊँ / अपने भीतर एक स्त्री की आत्मा! / वह भी एक ऐसे समय में / जब बच्चियाँ मारी जा रही हैं कोख में ही।'' (यथोपरि, पृ. 62) भ्रूणहत्या की चिंता तो है ही, पुरुषवादी वर्चस्व की जघन्य मानसिकता का पराभव भी है। कवि का सपना है एक प्रेममय समाज। उसकी स्थापना प्रेम से ही संभव है। ओछी मानसिकता को त्यागने के पश्चात वैसा मुमकिन हो सकता है। मर्दवादी सामाजिक संरचना में बहुत कम कवियों के पास साहस होगा यह कहने के लिए कि ''स्त्रियाँ कहीं भी बचा लेती है पुरुषों को''। 'स्मृतियों में बसी स्त्री' ही पुरुष को कुमार्ग से बचाती है, पथभ्रष्ट हो जाने से रोक लेती है और अकाल मृत्यु से उद्धार कर लेती है।

यहाँ एक अन्य उल्लेखनीय खूबी है कि प्रकृति प्रेम के इशारे पर उसके अनुकूल चलती है। तमाम कविताओं में यह वैशिष्ट्य नजर आता है। ऐसा तब संभव होता है जब कवि का कर्म, धर्म, सपना, उद्देय प्रेम हो। प्रियतमा के आगमन पर प्रकृति चल-चंचल हो उठती है। प्रियतम का मन खिल उठना तो स्वाभाविक है ही - ''चली हवा / झुका पीपल / सिहरी डाली हरसिंगार की / मन खिला बसंत का।'' (यथोपरि, पृ. 28) पुनः पुरानी यादों को तरोताजा करने के लिए प्रेमिका ने बक्से से चिट्ठी निकाली तो - ''चाँद मुस्करा दिया होगा हौले-से।'' या फिर, प्रेमिका की हँसी की प्रतिक्रिया प्रकृति पर यूँ होती है -

''तुम हँसी और नंदादेवी की चोटियों पर
खिल उठी धूप
पसर गया उजास पर्वत प्रदेश में
जैसे पसरता है मेरे मन में।''
(यथोपरि, पृ. 20)

समकालीन कविता में घर की चिंता बार-बार दिखाई पड़ती है। चंद्रकांत देवताले, नरेश सक्सेना, भगवत रावत, राजेश जोशी, अरुण कमल आदि की कविताओं में रचे-बसे घर की चिंता जितेंद्र को भी है। 'घर' मकान में तब्दील हो रहे हैं, 'फ्लैट' या 'कॉटेज' में बदल रहे हैं। जितेंद्र की प्रेम कविताओं में समय की यह बिडंबना बड़ी शिद्दत के साथ चित्रित हुई है। ईंट, लोहा, बालू, सीमेंट से घर कहाँ बनता है? घर बनता है स्नेह, प्रेम, विश्वास और संवेदना के भंडार से। इसलिए कवि के कदम उस घर की ओर भागते हैं - ''मेरे कदम भागते हैं हर साँस के साथ / मैं पहुँचता हूँ घर जहाँ / मेरी प्रतीक्षा से लंबी एक प्रतीक्षा / राह अगोरती मिलती है मुझसे।'' (यथोपरि, पृ. 87) 'घर' मधुर संबंध का प्रतीक है। प्रेम का निकेतन है। 'घर की चाय' शीर्षक कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं - ''पत्नी के बिना / घर की चाय / लगा जैसे / गरम पानी उतारना हो हलक में।'' (यथोपरि, पृ. 91) इसी प्रकार कवि को तलाश है एक घर की - ''अब मिली हो तुम / लगता है / घर भी मिल जाएगा / तुम्हारी बाँहों में / तुम्हारे प्यार में / तुम्हारी मुस्कान में।'' (यथोपरि, पृ. 69) कवि जितेंद्र की कविताओं में अभिव्यक्त प्रेम समाज से संपृक्त है। मानव-जीवन की मूल्यवत्ता व सारवत्ता बनकर प्रेम उज्जीवित हुआ है - ''लोग आते हैं / खिलखिला उठता है घर।'' (यथोपरि, पृ. 54)

आलोच्य कविता-संग्रह में समय और समाज के अँधेरे कोने कुचालों की ओर संकेत है। लेकिन इस संग्रह में कवि का उद्देश्य रहा है उन अँधेरे कोनों से मनुष्य को उबारकर सतत उजास की ओर प्रेरित करना। उन संभावनाओं को तलाशा एवं तरासा जाए जिससे हताश, उदास, क्लांत, भयभीत मनुष्य डरे नहीं, सहमे नहीं, निराश न हो। कवि का आग्रह है - ''यह समय तुम्हारा है / सिर्फ तुम्हारा / उठो, लपककर छू लो आकाश / यह धरती भी तुम्हारी है आकाश भी तुम्हारा।'' (यथोपरि, पृ. 67)

दुख, निराशा, उदासी आदि से कवि नई ऊर्जा ग्रहण करता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्षरत रहता है। अदम्य जिजीविषा के साथ जीवन को जीने के लिए प्रेरित करता है। कवि कहता है - ''देखो, तुम्हारे पति के पास / एक किसान की विरासत है / उसने अपने पिता की आँखों में / कभी साँझ नहीं देखी // अपनी माँ को कभी हारते नहीं देखा / उन दुर्दिनों में भी नहीं / जब कैंसरग्रस्त पिता मृत्यु से जूझ रहे थे।'' (यथोपरि, पृ. 95) कवि ने एक ऐसा शहर बसाना चाहा है जहाँ भेदभाव न हो, कोई अत्याचार न हो, ऊँच-नीच, छूत-अछूत का विवाद न हो। उस शहर में मनुष्य हों और बची रहे मनुष्यता - ''उस शहर में कोई किसी का राजा नहीं / कोई किसी की प्रजा नहीं / कोई किसी के अधिकार में नहीं रहता / कोई किसी पर अत्याचार नहीं करता।'' (यथोपरि, पृ. 81)

जाहिर है कि ऐसा शहर प्रेम की आधारिशिला पर ही निर्मित किया जा सकता है। प्रेम की चिरंतनता पर एक उत्कृष्ट कविता है 'सपने में एक लड़की - सोनमछरी' जिसमें कस्बाई निर्धन बच्चे के सपने में आने वाली सोनमछरी का मर्मस्पर्शी चित्रण है।

सच है कि 'बिल्कुल तुम्हारी तरह' जितेंद्र की प्रेम-कविताओं का संग्रह है लेकिन यह प्रेम के मार्फत उन मानवीय संबंधों का अन्वेषण भी है जिन्हें हमारे पारंपरिक, पारिवारिक या सामाजिक नाते-रिश्तों के दायरे में नहीं समेटा जा सकता है। इस दृष्टि से इस संकलन की कविताओं का विशेष महत्व है। कविता में अभिव्यक्त कवि की जीवनदृष्टि यह सिद्ध करती है कि उसकी कविता पूरे देश-काल में अंतर्निहित कविता है। कवि अकेले नहीं साथ-साथ जीने की अभिलाषा प्रकट करता है। इससे जीवन सँवार सकता है। कवि के शब्दों में - ''जीवन चार आँखों से देखा गया एक सपना / बीस ऊँगलियों से तराशी हुई एक तसवीर / चार पैरों से चली हुई दूरी / बिन बोले चार अधरों का कंपन / बिन कहे एक दूजे के लिए बटोरा ऑक्सीजन है।'' (यथोपरि, पृ. 22)

'बिल्कुल तुम्हारी तरह' की कुल 61 कविताओं में से अधिकांश कविताएँ ताज़े-टटके बिंब निर्मित करती हैं। इन बिंबों का सर्वथा नया प्रयोग होता है। 'कविताई' को ये बिंब नए आयाम देते हैं। 'उजास : कुछ कविताएँ' शीर्षक के अंतर्गत बारह छोटी-छोटी कविताएँ जितेंद्र के कवि को मौलिक बनाती हैं। एक-आध उदाहरण दृष्टव्य हैं -

1. ''अधर खुले उसके
जगह बनी
हवा जाने भर की
शब्द निकला एक
मंदिर में घंटियाँ बज उठीं अनेक।''
(यथोपरि, पृ.19)

2. ''वह साँझ जो आने को है अभी
ठिठकी खड़ी है पीपल की पत्तियों के बीच देखती-सी
कि तुम जाती हो''
(यथोपरि, पृ. 77)

3. ''पलकों पर ठहरी थीं दो बूँदें
अधरों पर चिलबिल हँसी
एक बूँद ठोढ़ी पर काँपती-सी
अब ढुलकी कि तब ढुलकी।''
(यथोपरि, पृ. 77)

'इन दिनों हालचाल', 'अनभै कथा', 'असुंदर सुंदर' कविता-संग्रहों के पश्चात 'बिल्कुल तुम्हारी तरह' का विशेष महत्व है। जितेंद्र श्रीवास्तव ने अपने अंतरतम प्रेम-सौंदर्य के माध्यम से सुंदर समाज के निर्माण का सपना देखा है।

इस संदर्भ को विराम देने से पहले कपिलदेव के कथन को उद्धृत करना अनुचित न होगा - ''जितेंद्र का कवि सरल निश्छल जीवन की खोज में हर उस जगह जाना चाहता है, जहाँ प्रेम एक आदत की तरह हो - मानो जीवन का सार। गौर करने की बात है कि जितेंद्र एक युवा कवि हैं और शायद इस मामले में अकेले कि अपने निजी प्रेम-प्रसंगों को लगभग उसी किशोर भावुकता और रोमानियत के साथ उन्होंने अपनी कविता का विषय बनने दिया है जैसा कि अनुभूति के टटकेपन में उसने महसूस किया होगा। ...जितेंद्र का 'प्रेम' दैहिक दायरे से निकलकर अपने विस्तार में पूरी कायनात को समेट लेने को उत्सुक है। न केवल उत्सुक, बल्कि कल्पना की असंभव हदों तक जाकर उस स्वप्न-संसार को संभव कर लेना चाहता है।'' (कपिलदेव, अंतर्वस्तु का सौंदर्य, पृ. 46-47)

(6)

अब जितेंद्र की कुछ कविताओं का उल्लेख भर किया जा सकता है जिनके केंद्र में कवि की नारी दृष्टि है। बताना अनावयक न होगा कि कवि की अपनी पत्नी-प्रियतमा, बेटियों से संबंधित कविताओं के अलावा 'लड़कियाँ', 'राय प्रवीन', 'आभा चतुर्वेदी', 'जनवरी की एक सुबह उठी तीन स्त्रियाँ', 'दुख पहाड़ का', 'किरायेदार की तरह', 'तुम कहाँ हो सुलेखा', 'सपने में एक लड़की सोनमछरी', 'परवीन बॉबी', 'पुकार' आदि पचासों कविताएँ हैं जहाँ नारी का मुक्ति-संघर्ष रूपायित हुआ है। नारी की इच्छा के बारे में बताया गया है कि नारी चाहती है संवेदना का विस्तार। सहभागिता। बराबरी का अधिकार। वह साथ-साथ चलने का सपना साकार करना चाहती है। नारी-विमर्श का पुरुष पाठ नहीं हैं जितेंद्र श्रीवास्तव की कविताएँ। कवि 'कायांतरण' से बड़ी शिद्दत के साथ अपनी स्त्री को स्पष्ट करता है। व्यष्टि से समष्टि की यात्रा जितेंद्र की खूबी है। स्त्री दोयम दर्जे की नहीं, सहगामिनी है। वह मनुष्य पहले है नारी बाद में। इस दृष्टिकोण ने जितेंद्र को विशेष महत्व प्रदान किया है।

जितेंद्र की नारी महानगरी आभिजात्य बोध वाली 'अल्ट्रा मॉडर्न' नारी नहीं है जो पार्टियों में खूब शेखी बघारती है। उनकी नारी नारी-विमर्श का डंका भी बजाती नहीं फिरती। लेकिन जितेंद्र की नारी रक्त-मांस की बनी हुई होती है। 'घास गढ़ती औरतें' शीर्षक कविता में कवि ने अपनी नारी दृष्टि का जो परिचय दिया है वह किसी भी अर्थ में पारंपरिक या दकियानूसी विचार की नहीं है -

''जायज बातों पर खुश
और नाजायज बातों पर
साड़ी खूंटियाकर लड़ने को तैयार
घास गढ़ती औरतें
कभी नहीं सिखाती हैं जवान होती बेटियों को
कि पति परमेश्वर होता है।''
(इन दिनों हालचाल, पृ. 40)

जितेंद्र की कविता में 'शोर' नहीं है। बड़े गंभीर विषय को भी अति सहज रूप में कहने की कला है कवि के पास। 'पति परमेश्वर' नहीं होता है अर्थात होता है, सहगामी होता है। उससे अधिक कुछ नहीं होता। पत्नी कुछ कमतर नहीं होती। इस प्रकार के तमाम भाव चंद शब्दों में प्रकट कर देना जितेंद्र का वैशिष्ट्य है। ''अमित अरथ आखर थोरे।'' इस कविता के अंत में कवि की दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट होती है-

''बोरसी की राख में छिपाकर
रख देती हैं थोड़ी-सी आग।''
(यथोपरि, पृ. 41)

'थोड़ी-सी आग' रागात्मक संबंध का प्रतीक बनकर आ सकती है। आने वाले कल के लिए सुखद कामना हेतु भी हो सकती है। विद्रोह के अर्थ में भी आग प्रयुक्त हो सकती है। संबंधों की उष्मा हेतु भी प्रयुक्त हो सकती है जिसे बचाए रखने का प्रयास करती है घास गढ़ती औरत। नवसृजन हेतु भी आग की आवश्यकता है।

जितेंद्र की दृष्टि में नारी खिलौना नहीं होती कि जब जैसा जी चाहे उससे खेल लिया जाए। उसकी अपनी मर्जी होती है। उस पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता। उसे यानी उसकी संवेदनाओं को जानना-समझना आवश्यक है। कवि के शब्दों में -

''औरतें खूबसूरत पहाड़ नहीं होतीं
जिनकी कोई मर्जी न हो
औरतें बिस्तर भी नहीं होतीं
न ही नुमाइश''
(यथोपरि, पृ. 59)

'नैतिकता के बाहरी कोतवालों को' अस्वीकार करने वाली 'परवीन बॉबी' हो अथवा पत्नी का अपनी माँग पर 'सिंदूर' धारण करना हो, 'स्त्रियाँ कहीं भी बचा लेती हैं पुरूषों को' हो या 'वे उड़ती हैं गोरैया की तरह', यत्र-तत्र सर्वत्र जितेंद्र की कविताओं के केंद्र में स्त्री स्थित है। कपिलदेव ने लिखा है - ''इन कविताओं में स्त्री की 'सप्रेस्ड पर्सनेलिटी' को देखने का मानवीय प्रयत्न झाँकता है। यहाँ स्त्री की उफनाती हुई, विमर्श करती हुई, मुक्त यौनता का कोई घटाटोप भी नहीं है। यहाँ तो पूरे भारतीय-पारंपरिक संदर्भों में पुरुषों से पिटती हुई दमित, प्रताड़ित और शहीद होती हुई एक ऐसी स्त्री है जिसे अभी अपने होने की अस्मिता-चेतना प्राप्त करनी है।'' (अंतर्वस्तु का सौंदर्य, पृ. 49-50) संक्षेप में जितेंद्र की स्त्री-दृष्टि व्यापक तथा प्रासंगिक है। यथार्थ है तो आदर्श भी है, दोनों का समन्वय भी।

(7)

समकालीन हिंदी कविता में किसान जीवन के अनुपस्थित होने की शिकायत होती है। आलोचकों ने भी बार-बार इस ओर कवियों का ध्यान बँटाना चाहा है। किसानों की आत्महत्या, उनके त्रासद जीवन, विसंगतियों और विडंबनाओं की ओर समकालीन कवि नजरअंदाज करता रहा है - ऐसी आपत्तियाँ भी उठाई जाती रही हैं। परंतु, वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। विनोद दास की कई कविताओं में किसान-चिंता है। जितेंद्र तो स्वीकार करते हैं कि किसान-चेतना उन्हें विरासत में प्राप्त है। किसान-पत्नी के जीवन का वर्णन करते हुए जितेंद्र लिखते हैं -

''वे औरतें कभी रोपती हैं धान
कभी काटती हैं गेहूँ
कभी करती हैं सोहनी
कभी उठाती हैं गारा-माटी
और कभी-कभी बिलखती हैं सखियों संग
अपने होने को लेकर।''
(असुंदर सुंदर, पृ. 94)

परंपरा के साथ संबंध स्थापित करते हुए कवि ने समकालीन यथार्थ को चित्रित किया है। किसानों के संदर्भ में बात करते हुए कवि शब्द-चित्र बनाता है -

''पर यह सुबह सुहानी है कि उम्मीद बुझाती
ठीक-ठीक बताएँगे वे किसान
जो तार-तार धोती लपेटे मिर्जई अंटकाए
देखते हैं कभी खलिहान कभी बादल।''
(अनभै कथा, पृ. 97)

प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात' का हल्कू की बरबस याद आती है जितेंद्र के किसान की दशा का चित्र पढ़कर। कवि जितेंद्र की कविताओं में लोक है, किसान जीवन में प्रयुक्त होने वाले तमाम उपकरण हैं तो स्वाभाविक है कि किसान-चेतना से समृद्ध कविताएँ भी होंगे। हैं भी। जितेंद्र न केवल किसान जीवन की दुर्दशा अभिव्यक्त करते हैं बल्कि उन पर गहरा विश्वास भी रखते हैं -

''यह धूम है कि आग
ठीक-ठीक बताएँगे वे किसान
जो बिना पनही महसूसते हैं इसका असर
धरती पर / आत्मा पर।''
(यथोपरि, पृ. 98)

भूख और लाचारी, अभावग्रस्तता और दरिद्रता, अशिक्षा और बीमारी के चलते किसान आत्महत्या कर रहे हैं अथवा असमय मारे जा रहे हैं। एक तबका नाच-गान में मस्त है जो शासक के नाम से जाना जाता है कवि ने लिखा है -

''अब भी असंख्य, 'होरियों' की गर्दनें दबी हुई हैं
'नए रायसाहबों' की टाँगों के बीच।''
(कायांतरण, पृ. 47)

युगीन भयावहता में किसान जीवन की करुण गाथा जितेंद्र की कई कविताओं में चित्रित हुई है। यहाँ उल्लेख किया जा सकता है कि किसान-चेतना के माध्यम से जितेंद्र केवल आर्थिक संदर्भ की चिंता प्रकट नहीं कर रहे होते हैं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों को भी उपस्थापित करते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो जितेंद्र की कविता की दुनिया के विविध संदर्भ भी खुलते जाते हैं।

(8)

सांप्रदायिक फासीवाद देश का क्रूर यथार्थ बना हुआ है। धार्मिक सत्ता, सांप्रदायिकता एवं आतंकवाद समाज की कटु सच्चाइयाँ हैं। धर्म ने सत्ता का रूप धारण कर लिया है। फलस्वरूप, आक्रामकता और कट्टरता फैलने लगी है। जब सांप्रदायिकता सुरसा की तरह अपना मुख फैलाती है तो धार्मिकता को कीड़े-मकोड़े की तरह निगलती चलती है। सांप्रदायिकता फैलने लगती है तो धार्मिकता अप्रासंगिक सिद्ध हो जाती है। अपने समय की विसंगतियों से जूझती जितेंद्र की कविता 'आमी' नदी के किनारे पहुँचकर बुद्ध के आदर्शों को प्रकट करती है तो कबीर की प्रासंगिकता को भी उद्घाटित करती है। सांप्रदायिक उन्माद के नए रूपों बाबरी मस्जिद या अहमदाबाद को दर्ज करती है। अतः जितेंद्र सोची-समझी साजिश को अंजाम देने वाली सांप्रदायिकता की सच्चाई को सामने लाते हैं। मानवता का गला घोंटनेवालों, खंजर भोंकनेवालों तथा त्रिशूल मारने वालों की नंगई को उघाड़ते हैं। 'किस देश में', 'लुंगी' आदि कविताओं में कवि की सांप्रदायिकता विरोधी मानसिकता स्पष्ट होती है।

अयोध्या प्रकरण भुलाया तक नहीं गया था कि गोधरा की आग भड़क उठी। इनसानियत फिर से शर्मसार हो गई। धर्म और मजहब के नाम पर नंगा नाच देखने को मिला। लोगों को जिंदा जलाया गया और माँ-बहनों की आबरू लूटी गई। कवि-प्राण इससे उद्वेलित होता है। आंदोलित भी। कवि ने इस संहार करने वाली घटना का उल्लेख ही नहीं किया बल्कि उसे नए अर्थ संदर्भ से युक्त भी किया है। अयोध्या और गोधरा क्या केवल भारत के दो स्थान भर हैं? दुनिया के जिस किसी स्थान पर ऐसी संहारकारी लीला घटती है वहाँ अयोध्या, गोधरा, अहमदाबाद खड़े हो जाते हैं -

''पहले एक घर
फिर दूसरा घर
फिर पूरी की पूरी बस्ती
झुलसकर राख हो जाती है
उसी तीली से।''
(अनभै कथा, पृ. 74)

सुखद अतीत और दुखद वर्तमान के बीच कवि खड़ा होकर सचेत करता है मनुष्यता विरोधी ताकतों की छद्मलीला से। आमी नदी का किनारा रक्तरंजित हो रहा है जिसे देखकर आमी -

''चिल्लाती है गुजरात गुजरात
पूछती है किसी पागल स्त्री की तरह
कहाँ है बुद्ध की धरती
कहाँ है कबीर का वतन''
(यथोपरि, पृ. 61)

'एक भाई का पत्र' शीर्षक कविता की निम्न पंक्तियाँ भी गौरतलब हैं -

''जब भी देखता हूँ देश का नक्शा
इस किनारे उस किनारे
यहाँ-वहाँ जहाँ-तहाँ
दिखता है बस अहमदाबाद अहमदाबाद''
(असुंदर सुंदर, पृ. 104)

इस संदर्भ में 'जरूर जाऊँगा कलकत्ता' के अंतर्पाठ को भी सामने रखा जा सकता है जब वह मिर्ज़ा गालिब को 'हमारे महाकवि' के रूप में सामने लाता है। दरअसल, सांप्रदायिक सद्भाव, सौमनस्य और सौहार्द्र की कामना करती है यह कविता।

पुनः 'लुंगी' शीर्षक कविता की चंद पंक्तियों के माध्यम से जितेंद्र के दृष्टिकोण का पता चलता है -

''जाने कब से किसानों मजूरों का
कभी भगई कभी तहमद
कभी लुंगी के नाम से लाज रखाती वह
किसी धर्म किसी राष्ट्र की कैद में नहीं
किसानों-मजूरों के जीवन में ही
सुख का झंडा बनकर लहराना चाहती है।'' (यथोपरि, पृ. 78)

(9)

समकालीन हिंदी कविता के सामने बड़ी चुनौती है कि 'कविताई' को कैसे बचाया जाए? पद्य नहीं रह गया है। गद्य की भरमार है। कविता की तमीज नहीं, पर कवि बनने का दंभ छूटता नहीं। धर-पकड़ से पुरस्कृत भी होते जा रहे हैं कई 'कवि'। ऐसे अराजक समय में जितेंद्र का कवि-कर्म आश्वस्त करता है। शब्दचयन में अत्यंत सजग कवि के रूप में जितेंद्र ख्यात हैं। भाषिक मितव्ययिता जितेंद्र की खास पहचान है। आश्चर्य होता है कि जितेंद्र तमाम तरह के संदर्भों और परिप्रेक्ष्यों को सहज तथा सामान्य भाषा में वह भी कविता में उतार कैसे देते हैं? जीवन के जटिल यथार्थ को अत्यंत सहजता के साथ रूपायित कैसे कर पाते हैं? शब्द-जाल से खुद बचकर अपने पाठकों को कभी न उलझाने वाला यह कवि कवि-कर्म को जो रूप प्रदान करता है वह उसका ही वैशिष्ट्य है। ''सादगी का यह एक नया काव्य-सौंदर्य है जो शायद हिंदी की समकालीन कविता में जितेंद्र के माध्यम से पहली बार संभव हो रहा है।'' (जितेंद्र श्रीवास्तव, कायांतरण, 2012, फ्लैप से।) जितेंद्र की कविताएँ हमें निराश नहीं करतीं, आशाओं और प्रबल संभावनाओं से भरती हैं। उनकी कविताएँ वर्तमान की विसंगतियों को सामने लाती हैं तो भविष्य की संभावनाओं के द्वार उनमुक्त भी करती हैं। विरासत के प्रति प्रेम के चलते अतीत तो है ही। सबसे बड़ी बात है कि ये कविताएँ मानवता की रक्षा हेतु कटिबद्ध हैं। प्रेम को माध्यम बनाती हैं। यह प्रेम जितना पत्नी के प्रति है उतना ही प्रकृति और पर्यावरण के प्रति भी। यह प्रेम जितना मानव-समाज के प्रति है उतना ही अपनी स्वस्थ विरासत के प्रति भी। जितेंद्र की कविताओं में राजनीति का छल-छद्म सूक्ष्मता के साथ चित्रित हुआ है। लेकिन अपने सद्यतम कविता-संग्रह 'कायांतरण' में यह अधिक मुखर हुआ है। अपने समय और समाज के 'व्यापक चेहरे' को यदि हम ढूँढ़ना चाहें तो जितेंद्र की कविताओं से गुजरना होगा। कहने में कोई संदेह नहीं कि इस गुजरने की प्रक्रिया में तमाम उम्मीदों से हमारा साक्षात्कार होगा। काव्य-मूल्य और काव्य-विवेक से रू-ब-रू होने का अवसर मिलेगा। कठिन समय में कवि-कर्म की कठिनाई को युवा कवि जितेंद्र ने जो उदाहरण खड़े किए हैं वे श्लाघ्य हैं, प्रशंसनीय हैं।


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